मन को भानेवाली बोली से रिश्तों में मिठास आती है
मन को भानेवाली बोली से रिश्तों में मिठास आती है
“तुम्हारे बोल हमेशा मन को भानेवाले . . . हों।”—कुलु. 4:6.
1, 2. एक भाई की अच्छी बोली का क्या नतीजा निकला?
एक भाई बताता है, “एक बार घर-घर के प्रचार में, मैं एक आदमी से मिला जो मुझ पर इतना गुस्सा हो गया कि उसके होंठ हिलने लगे और उसका पूरा शरीर काँपने लगा। . . . मैंने शांति से उसके साथ बाइबल से बात करने की कोशिश की, मगर वह और ज़्यादा भड़क उठा। उसकी पत्नी और बच्चे भी उसके साथ मुझे बुरा-भला कहने लगे। मैं समझ गया कि मेरा वहाँ से चले जाना ही अच्छा है। मैंने उन्हें भरोसा दिलाया कि मैं यहाँ शांति से आया था और शांति से जाने की इच्छा रखता हूँ। मैंने उन्हें गलातियों 5:22, 23 दिखाया जहाँ प्यार, कोमलता, संयम और शांति के बारे में बताया गया है। उसके बाद मैं वहाँ से चला आया।”
2 “कुछ समय बाद जब मैं सड़क पार घर-घर प्रचार कर रहा था तो मैंने उसी परिवार को उनके घर के सामने सीढ़ियों पर बैठे देखा। उन्होंने मुझे बुलाया। मैंने सोचा, ‘ना जाने, अब क्या करेंगे?’ उस आदमी के हाथ में ठंडे पानी का जग था और उसने मुझसे पानी के लिए पूछा। फिर अपने बुरे व्यवहार के लिए मुझसे माफी माँगी और मेरे मज़बूत विश्वास के लिए मेरी तारीफ की। अब हमारे बीच कड़वाहट नहीं रही।
3. हमें दूसरों के गुस्से का खुद पर असर क्यों नहीं होने देना चाहिए?
3 आज की दबाव भरी दुनिया में हर कहीं हमारा पाला ऐसे लोगों से पड़ता है जो गुस्सैल होते हैं। जब प्रचार के दौरान हमें ऐसे लोग मिलते हैं तो उनके साथ “कोमल स्वभाव और गहरे आदर के साथ” बात करना बहुत ज़रूरी होता है। (1 पत. 3:15) जिस भाई का अभी ज़िक्र किया गया, अगर वह घर-मालिक के गुस्से और बुरे व्यवहार पर आग-बबूला हो जाता तो क्या उस आदमी का रवैया कभी बदलता? नहीं, उलटा वह और खौल उठता। अच्छा नतीजा इसीलिए निकला क्योंकि भाई ने खुद पर काबू रखा और उससे प्यार से बात की।
कब हमारी बोली मनभावनी होती है?
4. मन को भानेवाले बोल बोलना क्यों ज़रूरी है?
4 चाहे हम दुनिया के लोगों से बात करें या मंडली में, या फिर परिवार के सदस्यों से, यह ज़रूरी है कि हम प्रेषित पौलुस की इस सलाह को मानें: “तुम्हारे बोल हमेशा मन को भानेवाले, सलोने हों।” (कुलु. 4:6) जी हाँ, मन को भानेवाले बोल बोलना ज़रूरी है, इससे अच्छी बातचीत होती है और शांति बनी रहती है।
5. अच्छी बातचीत का मतलब क्या नहीं है? समझाइए।
5 अच्छी बातचीत का मतलब यह नहीं है कि हम जैसा सोचते और महसूस करते हैं, वह सब तुरंत उगल दें, खास तौर पर तब, जब हम परेशान होते हैं। बाइबल कहती है कि गुस्से में बेकाबू होकर चिल्लाना कमज़ोरी की निशानी है, ताकत की नहीं। (नीतिवचन 25:28; 29:11 पढ़िए।) मूसा धरती के सभी मनुष्यों में “बहुत अधिक नम्र स्वभाव” का था। लेकिन एक बार इसराएलियों की बगावत की वजह से वह अपने गुस्से को काबू में न रख सका और परमेश्वर की महिमा करने से चूक गया। उस समय मूसा ने जैसा महसूस किया, साफ-साफ कह दिया, मगर यह बात यहोवा को अच्छी नहीं लगी। हालाँकि मूसा ने चालीस साल तक इसराएलियों की अगुवाई की, मगर उसे इसराएलियों को वादा किए हुए देश में ले जाने की इज़ाज़त नहीं दी गयी।—गिन. 12:3; 20:10, 12; भज. 106:32.
6. बुद्धि से या सोच-समझकर बोलने का क्या मतलब है?
6 बाइबल ऐसी बोली की तारीफ करती है, जो सँभलकर, बुद्धिमानी से या सोच-समझकर बोली जाती है। वह कहती है, “जहां बहुत बातें होती हैं, वहां अपराध भी होता है, परन्तु जो अपने मुंह को बन्द रखता वह बुद्धि से काम करता है।” (नीति. 10:19; 17:27) लेकिन बुद्धि से काम लेने का मतलब यह नहीं कि हम अपनी बात कभी किसी को न कहें। इसका मतलब है, “मन को भानेवाले” शब्द बोलना, जो ठेस नहीं बल्कि दिल को शांति पहुँचाते हैं।—नीतिवचन 12:18; 18:21 पढ़िए।
“चुप रहने का समय, और बोलने का भी समय है”
7. हमें किस तरह की बोली से दूर रहना चाहिए और क्यों?
7 जिस तरह हम साथ काम करनेवालों और प्रचार में लोगों के साथ सँभलकर बात करते हैं और मनभावने शब्द इस्तेमाल करते हैं, उसी तरह हमें मंडली में और परिवार के सदस्यों के साथ भी करना चाहिए। अगर हम नतीजे की चिंता किए बिना गुस्से में जो चाहे वह बोल दें, तो इससे हमारा और दूसरों का परमेश्वर के साथ रिश्ता बिगड़ सकता है, भावनाओं को ठेस पहुँच सकती है और शारीरिक तौर पर भी नुकसान हो सकता है। (नीति. 18:6, 7) असिद्ध होने की वजह से हमारे स्वभाव में जो बुराइयाँ हैं, उन्हें काबू में रखना ज़रूरी है। गाली देना, किसी का मज़ाक बनाना, किसी की बदनामी करना और नफरत करना गलत है। (कुलु. 3:8; याकू. 1:20) जो लोग ऐसा करते हैं, उनका अनमोल रिश्ता लोगों से, साथ ही परमेश्वर से टूट सकता है। यीशु ने सिखाया: “हर वह इंसान जिसके दिल में अपने भाई के खिलाफ गुस्से की आग सुलगती रहती है, उसे अदालत के सामने जवाब देना पड़ेगा। और हर वह इंसान जो घृणित शब्दों से अपने भाई का तिरस्कार करता है, उसे सबसे बड़ी अदालत के सामने जवाब देना पड़ेगा। और हर वह इंसान जो अपने भाई से कहता है, ‘अरे चरित्रहीन मूर्ख!’ वह गेहन्ना की आग में डाले जाने की सज़ा के लायक ठहरेगा।”—मत्ती 5:22.
8. हमें अपनी भावनाएँ कब ज़ाहिर करनी चाहिए और किस तरह?
8 कुछ मामले ऐसे होते हैं जिनके बारे में हमें लगता है कि खुलकर बात करना ही सबसे अच्छा है। अगर किसी भाई या बहन ने आपसे कुछ ऐसा कह दिया या कर दिया, जिसे सोचकर आप इतने परेशान हैं कि उसे भुलाना मुश्किल लगता है, तो अंदर-ही-अंदर सुलगते मत रहिए। (नीति. 19:11) अगर कोई आपको गुस्सा दिलाता है तो अपनी भावनाओं पर काबू पाने की कोशिश कीजिए और मामले को सुलझाने के लिए कारगर कदम उठाइए। पौलुस ने कहा: “सूरज ढलने तक तुम्हारा गुस्सा बना न रहे।” इसलिए अगर कोई बात आपको लगातार परेशान कर रही है तो सही वक्त पर उसे प्यार से सुलझाना बहुत ज़रूरी है। (इफिसियों 4:26, 27, 31, 32 पढ़िए।) मामले के बारे में भाई या बहन से खुलकर बात कीजिए, मगर मनभावने शब्दों का इस्तेमाल करते हुए और मेल-जोल करने के इरादे से।—लैव्य. 19:17; मत्ती 18:15.
9. दूसरों से बात करने से पहले हमें अपनी भावनाओं पर काबू पा लेना क्यों ज़रूरी है?
9 बेशक हम एक सही वक्त चुनकर ही बात करेंगे। बाइबल कहती है: “चुप रहने का समय, और बोलने का भी समय है।” (सभो. 3:1, 7) इतना ही नहीं, “धर्मी मन में सोचता है कि क्या उत्तर दूं।” (नीति. 15:28) तो इसका मतलब है कि अपनी परेशानी के बारे में बात करने के लिए हमें एक मुनासिब वक्त का इंतज़ार करना चाहिए। अगर एक इंसान अभी-भी गुस्से में है तो मामला और बिगड़ सकता है। लेकिन बहुत ज़्यादा इंतज़ार करना भी बुद्धिमानी नहीं होगी।
भले कामों से रिश्ते सुधरते हैं
10. भले कामों से कैसे रिश्तों में सुधार आता है?
10 मन को भानेवाली बोली और अच्छी बातचीत से रिश्ते बनते हैं और आपस में शांति कायम रहती है। इतना ही नहीं, रिश्तों को सुधारने के लिए अगर हम भले काम करने की कोशिश करें तो इससे हमारी बातचीत में भी निखार आ सकता है। दूसरों को मदद करने के मौके ढूँढ़ना, प्यार से तोहफे देना, मेहमाननवाज़ी दिखाना, ऐसे भले काम हमें उनके साथ खुलकर बातचीत करने का मौका देते हैं। और ऐसा करके हम उस इंसान के “सिर पर अंगारों का ढेर” रखते हैं, जिससे उसके अच्छे गुण निखरकर सामने आ सकते हैं और मामले को आसानी से सुलझाया जा सकता है।—रोमि. 12:20, 21.
11. याकूब ने एसाव के साथ रिश्ता सुधारने के लिए क्या किया और उसका क्या नतीजा निकला?
11 कुलपिता याकूब ने इस बात को समझा था। उसका जुड़वा भाई एसाव उससे इतना गुस्सा था कि उसे अपनी जान बचाकर भागना पड़ा। कई सालों के बाद याकूब लौटा। तो एसाव 400 आदमियों के साथ उससे मिलने आया। याकूब ने मदद के लिए यहोवा से प्रार्थना की। फिर उसने एसाव के लिए बहुत-से पालतू पशु तोहफे के तौर पर भेजे। उस तोहफे का बड़ा अच्छा असर हुआ। जब दोनों भाई मिले, तब एसाव का दिल पिघल चुका था और उसने दौड़कर अपने भाई को गले लगाया।—उत्प. 27:41-44; 32:6, 11, 13-15; 33:4, 10.
मन को भानेवाली बोली से दूसरों का हौसला बढ़ाइए
12. हमें अपने भाइयों के साथ मन को भानेवाले शब्द क्यों बोलने चाहिए?
12 सच है कि मसीही, इंसानों की नहीं परमेश्वर की सेवा करते हैं। फिर भी, हम चाहते हैं कि दूसरे हमें पसंद करें। हमारी मनभावनी बोली से हमारे भाई-बहनों की चिंताओं का बोझ हल्का हो सकता है। पर चोट पहुँचानेवाली बातों से हम उनका बोझ और बढ़ा सकते हैं, यहाँ तक कि वे सोच सकते हैं कि यहोवा भी उन्हें पसंद नहीं करता। इसलिए आइए हम सच्चे दिल से दूसरों को हिम्मत बढ़ानेवाली बातें कहें। हमारे मुँह से “सिर्फ ऐसी बात निकले जो ज़रूरत के हिसाब से हिम्मत बँधाने के लिए अच्छी हो, ताकि उससे सुननेवालों को फायदा पहुँचे।”—इफि. 4:29.
13. प्राचीनों को क्या ध्यान में रखना चाहिए जब वे (क) हिदायतें देते हैं? (ख) और खत लिखते हैं?
13 खासतौर पर प्राचीनों को “नर्मी” दिखाने और झुंड के साथ प्यार से पेश आने की ज़रूरत है। (1 थिस्स. 2:7, 8) जब प्राचीनों के लिए किसी को हिदायत देना ज़रूरी होता है, तो उनका मकसद होता है कि वे “कोमलता” से हिदायत दें, उन्हें भी “जो सही नज़रिया नहीं दिखाते।” (2 तीमु. 2:24, 25) जब एक प्राचीन दूसरे प्राचीनों के निकाय या शाखा दफ्तर को खत लिखता है, तब भी उसे अपनी बात मनभावने शब्दों में ज़ाहिर करनी चाहिए। मत्ती 7:12 के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए उसे प्यार और सूझ-बूझ दिखानी चाहिए।
परिवार में मन को भानेवाली बातें करना
14. पौलुस ने पतियों को क्या सलाह दी और क्यों?
14 हमें इस बात का एहसास भी नहीं होता कि हमारी बातों, चेहरे के हाव-भाव और तौर-तरीकों का दूसरों पर कितना गहरा असर होता है। कुछ आदमी इस बात से अनजान रहते हैं कि उनकी बातें स्त्रियों को कितनी चोट पहुँचा सकती हैं। एक बहन कहती है, “जब मेरा पति ऊँची आवाज़ में बात करता है तो मैं डर जाती हूँ।” आदमियों से ज़्यादा स्त्रियों पर तीखी बातों का बुरा असर हो सकता है और लंबे समय तक वे उन्हें नहीं भुला पातीं। (लूका 2:19) उसे खासकर उस आदमी की बातें ज़्यादा चुभती हैं, जिसे वह बहुत प्यार करती है और जिसकी वह इज़्ज़त करती है। इसलिए पौलुस ने पतियों को सलाह दी: “अपनी-अपनी पत्नी से प्यार करते रहो और उन पर गुस्से से आग-बबूला मत हो।”—कुलु. 3:19.
15. उदाहरण से समझाइए कि एक पति को क्यों अपनी पत्नी के साथ प्यार से पेश आना चाहिए।
15 इस बारे में एक अनुभवी शादी-शुदा भाई ने एक उदाहरण देकर समझाया कि क्यों एक पति को चाहिए कि वह अपनी पत्नी को “नाज़ुक पात्र” जानकर उससे नर्मी से पेश आए। उसने कहा, “आप कभी किसी कीमती और नाज़ुक फूलदान को बहुत ज़ोर से नहीं पकड़ेंगे क्योंकि अगर आपने ऐसा किया तो वह टूट जाएगा। बाद में अगर आप उसे जोड़ भी दें, तो उसमें दरार नज़र आएगी। उसी तरह अगर पति अपनी पत्नी को चोट पहुँचानेवाली बातें कहेगा, तो पत्नी के दिल को ठेस लग सकती है और उनके रिश्ते में हमेशा के लिए दरार आ सकती है।”—1 पतरस 3:7 पढ़िए।
16. एक पत्नी कैसे अपना परिवार बना सकती है?
16 उसी तरह आदमी भी दूसरों की बातों से या तो निराश हो सकता है या उसका हौसला बढ़ सकता है, खास तौर पर अगर बातें उसकी पत्नी ने कही हों। “बुद्धिमती पत्नी” वह होती है जो अपने पति की भावनाओं का खयाल रखती है, ठीक जैसे वह अपने पति से चाहती है और ऐसी पत्नी पर पति को “विश्वास” होता है। (नीति. 19:14; 31:11) इसमें कोई शक नहीं कि एक पत्नी का परिवार पर अच्छा या बुरा असर हो सकता है। “हर बुद्धिमान स्त्री अपने घर को बनाती है, पर मूढ़ स्त्री उसको अपने ही हाथों से ढा देती है।”—नीति. 14:1.
17. (क) बच्चों को अपने माता-पिता से कैसे बात करनी चाहिए? (ख) बड़ों को छोटों के साथ कैसे बात करनी चाहिए और क्यों?
17 माता-पिता और बच्चों को भी एक-दूसरे से मन को भानेवाली बातें करनी चाहिए। (मत्ती 15:4) अगर हम बच्चों से सोच-समझकर बात करेंगे तो हम उन्हें “खीझ” या “क्रोध” नहीं दिलाएँगे। (कुलु. 3:21; इफि. 6:4, NHT) अगर बच्चों को ताड़ना भी देनी हो तो माता-पिता और प्राचीनों को इज़्ज़त से देनी चाहिए। इस तरह बच्चे आसानी से बड़ों की बात मान लेते हैं और वे गलत रास्ते से फिरकर परमेश्वर के साथ एक मज़बूत रिश्ता कायम कर पाते हैं। बच्चे को इस तरह रास्ते पर लाना अच्छा है बजाय इसके कि आप उसे यह एहसास दिलाएँ कि वह कभी नहीं सुधरेगा या बच्चा यह सोचे कि वह आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरेगा। बच्चों को शायद यह याद न रहे कि उन्हें कितनी बार सलाह दी गयी, मगर जिस तरीके से दी गयी है वह उसे याद रह जाएगा।
दिल से अच्छी बातें करना
18. हम कैसे बुरी भावनाओं और विचारों को दिल से निकाल सकते हैं?
18 गुस्से को काबू करने का मतलब यह नहीं है कि सिर्फ आप शांत रहने का दिखावा करें। हमारा मकसद यह नहीं होना चाहिए कि हम अपनी भावनाओं को दबाएँ। बाहर से शांत रहने की कोशिश करना मगर अंदर-ही-अंदर गुस्से को दबाने से हम पर काफी तनाव आता है। ऐसा करना इस तरह होगा, मानो कार को रोकने और चलाने के लिए एक-साथ पेडल दबाए जा रहे हों। इससे कार पर बहुत दबाव आएगा और कार खराब हो सकती है। ऐसा न हो कि आप गुस्से में अंदर-ही-अंदर सुलगते रहें और एक दिन ज्वालामुखी बनकर फूट पड़ें। आपके दिल में जो बुरी भावना ज़ोर पकड़े हुए है उसे दूर करने के लिए यहोवा से मदद माँगिए। ऐसा हो कि यहोवा की पवित्र शक्ति आपके दिलो-दिमाग पर असर करे, जिससे आप उसकी इच्छा के मुताबिक चल सकें।—रोमियों 12:2; इफिसियों 4:23, 24 पढ़िए।
19. जब कोई आपसे गुस्सा हो जाता है तो आपको क्या कदम उठाने चाहिए?
19 कारगर कदम उठाइए। अगर आप देखते हैं कि माहौल बहुत गरम है और आपका गुस्सा अंदर-ही-अंदर उबल रहा है तो वहाँ से चले जाना ही बेहतर होगा, जिससे आप अपनी भावनाओं को शांत होने के लिए वक्त दे सकें। (नीति. 17:14) आप जिसके साथ बात कर रहे हैं, अगर वह गुस्से में बोलना शुरू करता है तो खासकर ऐसे समय पर मन को भानेवाले शब्द बोलने की कोशिश कीजिए। याद रखिए: “कोमल उत्तर सुनने से जलजलाहट ठण्डी होती है, परन्तु कटुवचन से क्रोध धधक उठता है।” (नीति. 15:1) दिल को चीर देनेवाली या ठेस पहुँचानेवाली बातें आग में घी का काम करती हैं, फिर चाहे वह नरम लहज़े में ही क्यों न कही गयी हों। (नीति. 26:21) इसलिए जब हालात आपके संयम की परीक्षा लेते हैं तो आपको ‘बोलने में सब्र करना, और क्रोध करने में धीमा होना’ चाहिए। यहोवा से प्रार्थना कीजिए कि वह आपको शक्ति दे ताकि आप अच्छी बातें बोलें न कि बुरी।—याकू. 1:19.
दिल से माफ कीजिए
20, 21. दूसरों को माफ करने में क्या बात हमारी मदद करेगी और हमें ऐसा क्यों करना चाहिए?
20 दुख की बात है कि हममें से किसी का भी अपनी ज़ुबान पर काबू नहीं रहता। (याकू. 3:2) अपनी पूरी कोशिश करने के बावजूद परिवार के लोग और हमारे मंडली के प्यारे भाई-बहन कभी-कभी दिल को चुभनेवाली बातें कह जाते हैं जिससे हमें काफी ठेस पहुँचती है। तुरंत बुरा मान लेने के बजाय धीरज के साथ हालात का मुआयना कीजिए कि फलाँ इंसान ने क्यों ऐसा कहा या किया। (सभोपदेशक 7:8, 9 पढ़िए।) क्या उन पर कोई दबाव था, डर या चिंता सता रही थी, उनकी तबियत ठीक नहीं थी या अपनी किसी अंदरूनी या बाहर की किसी परेशानी से जूझ रहे थे?
21 ये सारी बातें गुस्से में भड़क उठने को जायज़ नहीं ठहरातीं। लेकिन इन बातों को ध्यान में रखने से हमें यह समझने में मदद मिलेगी कि क्यों लोग कई बार ऐसी बातें कह जाते या कर जाते हैं जो उन्हें नहीं करनी चाहिए। और इस तरह हम उन्हें आसानी से माफ कर पाएँगे। हम सभी किसी-न-किसी को अपनी बातों या कामों से ठेस पहुँचाते हैं और उम्मीद करते हैं कि वे मन में बिना कोई नफरत पाले हमें माफ कर देंगे। (सभो. 7:21, 22) यीशु ने कहा कि अगर हम परमेश्वर से माफी पाना चाहते हैं तो हमें भी दूसरों को माफ करना चाहिए। (मत्ती 6:14, 15; 18:21, 22, 35) इसलिए हमें तुरंत माफी माँगने और माफ करने के लिए तैयार रहना चाहिए। इस तरह हम उस प्यार को बनाए रख सकेंगे जो परिवार और मंडली को “पूरी तरह से एकता में जोड़नेवाला जोड़” है।—कुलु. 3:14.
22. मन को भानेवाले शब्द बोलने की खास कोशिश करना क्यों फायदेमंद है?
22 जैसे-जैसे यह गुस्सैल संसार अपने अंत के नज़दीक आ रहा है, हमारे लिए अपनी खुशी और एकता को बरकरार रखना और भी मुश्किल होता जाएगा। लेकिन परमेश्वर के वचन से कारगर सिद्धांतों को अपनाने से हम अपनी ज़ुबान का अच्छा इस्तेमाल करेंगे ना कि बुरा। फिर हम मंडली और परिवार में ज़्यादा अच्छे रिश्ते बना सकेंगे और हमारे उदाहरण से दूसरों को हमारे “आनंदित परमेश्वर” के बारे में बेहतरीन साक्षी मिलेगी।—1 तीमु. 1:11.
आप कैसे समझा सकते हैं?
• आपसी समस्याओं पर बात करने के लिए एक सही समय चुनना क्यों ज़रूरी है?
• परिवार के सदस्यों को क्यों एक-दूसरे से हमेशा “मन को भानेवाले” शब्द बोलने चाहिए?
• दूसरों को चोट पहुँचानेवाली बातें बोलने से हम कैसे दूर रह सकते हैं?
• क्या बात हमें दूसरों को माफ करने में मदद देगी?
[अध्ययन के लिए सवाल]
[पेज 21 पर तसवीरें]
पहले अपनी भावनाओं को शांत होने दीजिए, फिर सही वक्त देखकर बात कीजिए
[पेज 23 पर तसवीर]
एक पति को हमेशा अपनी पत्नी के साथ नर्मी से बात करनी चाहिए