यहोवा को हमेशा अपने सामने रखिए
यहोवा को हमेशा अपने सामने रखिए
“मैं ने यहोवा को निरन्तर अपने सम्मुख रखा है।”—भज. 16:8.
1. बाइबल में दर्ज़ ब्यौरों का हम पर क्या असर हो सकता है?
यहोवा के लिखित वचन, बाइबल में इंसानों के साथ उसके व्यवहार का बढ़िया रिकॉर्ड दिया गया है। इसमें ऐसे कई लोगों के बारे में बताया गया है, जिन्होंने परमेश्वर के मकसद के पूरा होने में भूमिका निभायी थी। बेशक, उन्होंने जो कहा और जो काम किए, उन्हें सिर्फ मज़ेदार कहानियों के तौर पर दर्ज़ नहीं किया गया है। बल्कि इसलिए भी दर्ज़ किया गया है, ताकि इन ब्यौरों को पढ़कर हम परमेश्वर के और भी करीब आ सकें।—याकू. 4:8.
2, 3. भजन 16:8 में दर्ज़ शब्दों का क्या मतलब है?
2 हम सभी, बाइबल में बताए जाने-माने किरदारों के तजुरबों से काफी कुछ सीख सकते हैं। जैसे कि इब्राहीम, सारा, मूसा, रूत, दाऊद, एस्तेर, प्रेरित पौलुस और दूसरों के तजुरबों से। लेकिन बाइबल के उन किरदारों के बारे में क्या, जो इतने मशहूर नहीं हैं? उनसे भी हम अनमोल सबक सीख सकते हैं। दरअसल, बाइबल के सभी ब्यौरों पर मनन करने से हम भजनहार की कही इस बात पर अमल कर पाएँगे: “मैं ने यहोवा को निरन्तर अपने सम्मुख रखा है: इसलिये कि वह मेरे दहिने हाथ रहता है मैं कभी न डगमगाऊंगा।” (भज. 16:8) इन शब्दों का क्या मतलब है?
3 पुराने ज़माने में युद्ध के वक्त, एक सैनिक अकसर अपने बाएँ हाथ से ढाल पकड़ता था और दाएँ हाथ से तलवार। इसलिए उसके दाएँ हाथ को खतरा रहता था। ऐसे में अगर उसका दोस्त उसकी दायीं तरफ खड़े होकर दुश्मनों से लड़ता, तो इससे उसकी हिफाज़त होती थी। उसी तरह, अगर हम यहोवा को हमेशा अपने मन में रखें और वही करें जो वह हमसे चाहता है, तो वह हमारी हिफाज़त ज़रूर करेगा। तो फिर, आइए देखें कि बाइबल के ब्यौरों पर गौर करने से हम कैसे अपने विश्वास को मज़बूत कर सकते हैं, ताकि हम ‘[यहोवा] को हमेशा अपने सामने रखें।’—किताब-ए-मुकद्दस।
यहोवा हमारी प्रार्थनाओं का जवाब देता है
4. बाइबल से एक ऐसी मिसाल दीजिए, जो दिखाती है कि परमेश्वर प्रार्थनाओं का जवाब देता है।
4 अगर हम यहोवा को अपने सामने रखें, तो वह हमारी प्रार्थनाओं का ज़रूर जवाब देगा। (भज. 65:2; 66:19) इस बात का सबूत हमें इब्राहीम के सबसे पुराने सेवक से मिलता है। वह सेवक शायद एलीएजेर था। इब्राहीम ने एलीएजेर को दूर मिसुपुतामिया भेजा, ताकि वह उसके बेटे इसहाक के लिए एक ऐसी दुलहन ढूँढ़कर ला सके, जो परमेश्वर का भय मानती हो। एलीएजेर ने परमेश्वर से मार्गदर्शन माँगा और जब रिबका नाम की एक स्त्री ने उसके ऊँटों को पानी पिलाया, तो वह समझ गया कि यहोवा ने उसकी सुन ली है और उसे मार्गदर्शन दे रहा है। क्योंकि एलीएजेर ने सच्चे दिल से प्रार्थना की, इसलिए वह इसहाक के लिए एक प्यारी पत्नी ढूँढ़ने में कामयाब रहा। (उत्प. 24:12-14, 67) यह सच है कि इब्राहीम के सेवक को एक बहुत ही खास काम से भेजा गया था। हो सकता है हमारे मामले में ऐसा न हो। फिर भी, क्या हमें भी एलीएजेर की तरह यहोवा पर भरोसा नहीं रखना चाहिए कि वह हमारी प्रार्थनाओं को सुनता है?
5. हम क्यों कह सकते हैं कि यहोवा से मन-ही-मन की गयी एक छोटी-सी प्रार्थना भी काफी असरदार साबित हो सकती है?
5 कभी-कभी हमें शायद परमेश्वर से मदद माँगने के लिए फौरन एक छोटी-सी प्रार्थना करनी पड़े। इसकी एक मिसाल लीजिए। एक दफा, फारस के राजा अर्तक्षत्र ने देखा कि उसका पिलानेहारा, नहेमायाह बहुत उदास है। इस पर राजा ने उससे पूछा: “तुम क्या चाहते हो?” नहेमायाह ने उसी वक्त ‘मन-ही-मन स्वर्ग के परमेश्वर से प्रार्थना की।’ (नयी हिन्दी बाइबिल) वह राजा को जवाब देने के लिए अपना समय नहीं ले सकता था, इसलिए उसने एक छोटी-सी प्रार्थना की। फिर भी, परमेश्वर ने उसकी प्रार्थना सुनकर उसका जवाब दिया। हम ऐसा इसलिए कह सकते हैं, क्योंकि राजा ने नहेमायाह को यरूशलेम की दीवारें दोबारा खड़ी करने में मदद दी। (नहेमायाह 2:1-8 पढ़िए।) तो देखा आपने, मन-ही-मन की गयी एक छोटी-सी प्रार्थना भी काफी असरदार साबित हो सकती है।
6, 7. (क) प्रार्थना के मामले में इपफ्रास ने क्या मिसाल रखी? (ख) हमें दूसरों के लिए प्रार्थना क्यों करनी चाहिए?
6 हमें बढ़ावा दिया गया है कि हम “एक दूसरे के लिये प्रार्थना क[रें],” फिर चाहे हमें कभी-कभी इस बात का सबूत न भी मिले कि परमेश्वर हमारी प्रार्थनाओं का जवाब दे रहा है। (याकू. 5:16) इपफ्रास, जो “मसीह का विश्वासयोग्य सेवक” था, अपने भाई-बहनों के लिए दिल की गहराई से प्रार्थना करता था। रोम से लिखते वक्त, पौलुस ने अपनी पत्री में कहा: “इपफ्रास जो तुम [कुलुस्से के रहनेवालों] में से है, और मसीह यीशु का दास है, तुम से नमस्कार कहता है और सदा तुम्हारे लिये प्रार्थनाओं में प्रयत्न करता है [‘दुआ करने में अपनी जान लड़ा देता है,’ हिन्दुस्तानी बाइबल], ताकि तुम सिद्ध होकर पूर्ण विश्वास के साथ परमेश्वर की इच्छा पर स्थिर रहो। मैं उसका गवाह हूं, कि वह तुम्हारे लिये और लौदीकिया[वालों] और हियरापुलिसवालों के लिये बड़ा यत्न करता रहता है।”—कुलु. 1:7; 4:12, 13.
7 कुलुस्से, लौदीकिया और हियरापुलिस, ये तीनों शहर एशिया माइनर के एक ही इलाके में पाए जाते थे। हियरापुलिस के मसीही ऐसे लोगों के बीच रहते थे, जो सायबली देवी के उपासक थे। लौदीकिया के मसीही ऐसे माहौल में जीते थे, जहाँ धन-दौलत के पीछे अंधाधुंध भागना आम था। और कुलुस्से के मसीहियों पर, इंसानी फलसफों से भ्रष्ट होने का खतरा मँडरा रहा था। (कुलु. 2:8) इसलिए इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि क्यों इपफ्रास ने, जो खुद भी कुलुस्से से था, उस शहर के रहनेवाले मसीहियों के लिए ‘दुआ करने में अपनी जान लड़ा दी’ थी! बाइबल में यह नहीं बताया गया है कि परमेश्वर ने इपफ्रास की प्रार्थनाओं का कैसे जवाब दिया। लेकिन हाँ, इसमें यह ज़रूर बताया गया है कि इपफ्रास ने अपने संगी विश्वासियों के लिए प्रार्थना करना नहीं छोड़ा। उसी तरह, हमें भी अपने भाई-बहनों के लिए प्रार्थना करना नहीं छोड़ना चाहिए। हालाँकि हम ‘पराए काम में हाथ नहीं डालते,’ मगर फिर भी हम शायद अपने परिवार के ऐसे किसी सदस्य या एक ऐसे दोस्त के बारे में जानते हों, जो विश्वास की कड़ी परीक्षा से गुज़र रहा है। (1 पत. 4:15) तो क्यों न हम अकेले में प्रार्थना करते वक्त, उनके लिए भी प्रार्थना करें? जिस तरह दूसरों की प्रार्थनाओं से पौलुस को मदद मिली थी, उसी तरह हमारी प्रार्थनाओं का भी काफी अच्छा असर हो सकता है।—2 कुरि. 1:10, 11.
8. (क) हम कैसे जानते हैं कि इफिसुस के प्राचीन, प्रार्थना की अहमियत समझते थे? (ख) परमेश्वर से प्रार्थना करने के बारे में हमारा क्या नज़रिया होना चाहिए?
8 क्या दूसरे लोग हमारे बारे में यह राय रखते हैं कि हम प्रार्थना करने के सुअवसर की कदर करनेवाले और अकसर प्रार्थना करनेवाले स्त्री-पुरुष हैं? पौलुस जब इफिसुस के प्राचीनों से मिला, तो “उस ने घुटने टेके और उन सब के साथ प्रार्थना की। तब वे सब बहुत रोए और पौलुस के गले में लिपट कर उसे चूमने लगे। वे विशेष करके इस बात का शोक करते थे, जो उस ने कही थी, कि तुम मेरा मुंह फिर न देखोगे।” (प्रेरि. 20:36-38) हमें इन सभी प्राचीनों के नाम तो नहीं मालूम, फिर भी इस ब्यौरे से इतना ज़रूर ज़ाहिर होता है कि ये प्राचीन, प्रार्थना की अहमियत समझते थे। उनकी तरह, हमें भी परमेश्वर से प्रार्थना करने के सुअवसर की कदर करनी चाहिए। साथ ही, हमें इस यकीन के साथ अपने “पवित्र हाथों को उठाकर प्रार्थना” करनी चाहिए कि स्वर्ग में रहनेवाला हमारा पिता हमारी प्रार्थनाएँ सुनकर उनका जवाब देगा।—1 तीमु. 2:8.
पूरी रीति से परमेश्वर की आज्ञा मानिए
9, 10. (क) सलोफाद की बेटियों ने क्या मिसाल रखी? (ख) सलोफाद की बेटियों ने जिस तरह परमेश्वर की आज्ञा मानी, उससे कुँवारे मसीही, शादी के बारे में क्या सीख सकते हैं?
9 अगर हम यहोवा को हमेशा अपने मन में रखेंगे, तो हम उसकी आज्ञाओं को मान पाएँगे और इससे हमें उसकी आशीषें मिलेंगी। (व्यव. 28:13; 1 शमू. 15:22) इसके लिए ज़रूरी है कि हम उसकी आज्ञाओं को मानने के लिए तैयार रहें। इस बात को और भी अच्छी तरह समझने के लिए, मूसा के ज़माने में जीनेवाले सलोफाद की पाँच बेटियों की मिसाल लीजिए। इस्राएलियों में एक दस्तूर था कि पिता के मरने के बाद, उसकी ज़मीन-जायदाद बेटों को मिलती थी। लेकिन सलोफाद का कोई बेटा न था, बल्कि उसकी पाँच बेटियाँ थीं। जब उसकी मौत हुई, तो यहोवा ने यह निर्देशन दिया कि उसकी सारी विरासत बेटियों को दी जाए। मगर इसमें एक शर्त थी। वह यह कि इन पाँचों बेटियों को मनश्शे के गोत्र के लड़कों से ही शादी करनी थी, ताकि उनके पिता की ज़मीन-जायदाद उन्हीं के गोत्र में बनी रहे।—गिन. 27:1-8; 36:6-8.
10 सलोफाद की बेटियों को पूरा यकीन था कि अगर वे यहोवा की आज्ञा मानें, तो इसका अच्छा नतीजा निकलेगा। बाइबल कहती है: “यहोवा की आज्ञा के अनुसार जो उस ने मूसा को दी सलोफाद की बेटियों ने किया। अर्थात् महला, तिर्सा, होग्ला, मिलका, और नोआ, जो सलोफाद की बेटियां थीं, उन्हों ने अपने चचेरे भाइयों से ब्याह किया। वे यूसुफ के पुत्र मनश्शे के वंश के कुलों में ब्याही गईं, और उनका भाग उनके मूलपुरुष के कुल के गोत्र के अधिकार में बना रहा।” (गिन. 36:10-12) इन आज्ञाकारी स्त्रियों ने वही किया, जो यहोवा ने उनसे कहा था। (यहो. 17:3, 4) उसी तरह, आज आध्यात्मिक रूप से प्रौढ़ कुँवारे मसीही भी ‘केवल प्रभु में विवाह करने’ की परमेश्वर की आज्ञा मानते हैं, क्योंकि उन्हें पूरा यकीन है कि ऐसा करने के बढ़िया नतीजे निकलेंगे।—1 कुरि. 7:39.
11, 12. कालेब ने कैसे दिखाया कि उसे परमेश्वर पर पूरा भरोसा था?
11 हमें यहोवा की एक-एक आज्ञा मानने की ज़रूरत है, ठीक जैसे कालेब नाम के एक इस्राएली पुरुष ने किया था। (व्यव. 1:36) सामान्य युग पूर्व 16वीं सदी में इस्राएलियों के मिस्र से छुड़ाए जाने के बाद, मूसा ने 12 पुरुषों को कनान देश की जासूसी करने के लिए भेजा। जब वे लौटकर आए, तो उनमें से सिर्फ दो जन ने, यानी कालेब और यहोशू ने लोगों को उकसाया कि वे परमेश्वर पर भरोसा करते हुए कनान देश में कदम रखें। (गिन. 14:6-9) मगर बाकी 10 जासूसों ने विश्वास की कमी दिखायी। इसका क्या अंजाम हुआ? ऐसा मालूम होता है कि जब इस्राएलियों को 40 साल वीराने में भटकना पड़ा, तो वे जासूस वहीं मर गए। जबकि यहोशू और कालेब इन सालों के बाद भी ज़िंदा थे और पूरी रीति से यहोवा की बात मान रहे थे। यहाँ तक कि परमेश्वर ने यहोशू को इस्राएल का अगला अगुवा ठहराया और उसने इस्राएलियों को वादा किए गए देश तक पहुँचाया।—गिन. 14:31-34.
12 वीराने में 40 साल के सफर में से जो लोग बच निकले थे, उनमें से कालेब सबसे बुज़ुर्ग था। इस नाते, वह यहोशू के सामने खड़े होकर कह सका: “मैं ने अपने परमेश्वर यहोवा की पूरी रीति से बात मानी [है]।” (यहोशू 14:6-9 पढ़िए।) पचासी साल के कालेब ने उस पहाड़ी इलाके पर कब्ज़ा करने की गुज़ारिश की, जिसे परमेश्वर ने उसे विरासत में देने का वादा किया था, इसके बावजूद कि वहाँ दुश्मन बड़े-बड़े गढ़वाले नगरों में रह रहे थे।—यहो. 14:10-15.
13. हमें चाहे जैसी भी आज़माइशों से क्यों न गुज़रना पड़े, परमेश्वर की आशीष पाने के लिए हमें क्या करना होगा?
13 अगर हम भी वफादार और आज्ञाकारी कालेब की तरह बनें, तो परमेश्वर हमें ज़रूर आशीष देगा। पहाड़ जैसी रुकावटों का सामना करते वक्त, अगर हम ‘पूरी रीति से यहोवा की बात मानें,’ तो वह हमें इन रुकावटों को पार करने में मदद देगा। मगर कालेब की तरह, ज़िंदगी-भर ऐसा करना कोई आसान काम नहीं। राजा सुलैमान को ही लीजिए। शुरू-शुरू में तो उसने यहोवा की बात मानी। मगर बुढ़ापे में उसकी पत्नियों ने उसका मन झूठे देवताओं की ओर बहका दिया। नतीजा, वह “यहोवा के पीछे अपने पिता दाऊद की नाईं पूरी रीति से न चला।” (1 राजा 11:4-6) हमें चाहे जैसी भी आज़माइशों से क्यों न गुज़रना पड़े, आइए हम हमेशा पूरी रीति से परमेश्वर की आज्ञा मानें और उसे हरदम अपने सामने रखें।
यहोवा पर हमेशा भरोसा रखिए
14, 15. नाओमी के अनुभव से आपने यहोवा पर भरोसा रखने के बारे में क्या सीखा?
14 हमें परमेश्वर पर पूरा भरोसा रखना चाहिए, खासकर तब जब हम निराश होते हैं, क्योंकि हमें हालात सुधरने के कोई आसार नज़र नहीं आते। नाओमी नाम की बुज़ुर्ग स्त्री पर गौर कीजिए। वह अपने पति और दोनों बेटों को खो चुकी थी। इसके बाद, जब वह मोआब से वापस अपने वतन यहूदा लौट आयी, तो उसने अपना दुखड़ा रोते हुए कहा: “मुझे नाओमी [“मनोहर,” फुटनोट] न कहो, मुझे मारा [“दुखियारी,” फुटनोट] कहो, क्योंकि सर्वशक्तिमान् ने मुझ को बड़ा दुःख दिया है। मैं भरी पूरी चली गई थी, परन्तु यहोवा ने मुझे छूछी करके लौटाया है। सो जब कि यहोवा ही ने मेरे विरुद्ध साक्षी दी, और सर्वशक्तिमान् ने मुझे दुःख दिया है, फिर तुम मुझे क्यों नाओमी कहती हो?”—रूत 1:20, 21.
15 हालाँकि नाओमी बहुत निराश थी, फिर भी अगर हम रूत की किताब को ध्यान से पढ़ें, तो हम देख पाएँगे कि ऐसे हालात में भी नाओमी ने यहोवा पर अपना भरोसा नहीं छोड़ा। और उसके हालात में क्या ही ज़बरदस्त बदलाव आया! उसकी विधवा बहू, रूत ने बोअज़ से शादी कर ली और एक बेटे को जन्म दिया। नाओमी उस बच्चे की धाई बनी। इसके बाद क्या हुआ, इस बारे में बाइबल कहती है: “उसकी पड़ोसिनों ने यह कहकर, कि नाओमी के एक बेटा उत्पन्न हुआ है, लड़के का नाम ओबेद रखा। यिशै का पिता और दाऊद का दादा वही हुआ।” (रूत 4:14-17) ज़रा सोचिए, जब भविष्य में नाओमी को दोबारा इस धरती पर ज़िंदा किया जाएगा, तो उसे यह जानकर कितनी खुशी होगी कि उसकी बहू रूत, जिसका भी पुनरुत्थान होगा, मसीहा यीशु की पुरखिन बनी! (मत्ती 1:5-7, 16) नाओमी की तरह, हम भी पक्के तौर पर नहीं कह सकते कि कब हमारे बुरे हालात बदल जाएँ। इसलिए आइए हम हमेशा यहोवा पर भरोसा रखें, ठीक जैसे नीतिवचन 3:5, 6 में हमें उभारा गया है: “तू अपनी समझ का सहारा न लेना, वरन सम्पूर्ण मन से यहोवा पर भरोसा रखना। उसी को स्मरण करके सब काम करना, तब वह तेरे लिये सीधा मार्ग निकालेगा।”
पवित्र आत्मा पर निर्भर रहिए
16. परमेश्वर की पवित्र आत्मा ने प्राचीन इस्राएल के कुछ पुरनियों की मदद कैसे की?
16 अगर हम यहोवा को हमेशा अपने सामने रखें, तो वह हमें अपनी पवित्र आत्मा के ज़रिए राह दिखाएगा। (गल. 5:16-18) परमेश्वर की आत्मा उन 70 पुरनियों पर थी, जिन्हें इस्राएली ‘लोगों का भार उठाने’ में मूसा की मदद करने के लिए चुना गया था। हालाँकि बाइबल में इनमें से सिर्फ एलदाद और मेदाद के नाम दिए गए हैं, फिर भी पवित्र आत्मा ने पूरे 70 पुरनियों को अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाने के काबिल बनाया था। (गिन. 11:13-29) इसमें कोई शक नहीं कि वे कुछ समय पहले चुने गए प्रधानों की तरह काबिल, परमेश्वर का भय माननेवाले, भरोसेमंद और ईमानदार थे। (निर्ग. 18:21) आज, इस तरह के गुण मसीही प्राचीन ज़ाहिर करते हैं।
17. निवासस्थान के निर्माण में यहोवा की पवित्र आत्मा ने क्या भूमिका निभायी?
17 यहोवा की पवित्र आत्मा ने वीराने में निवासस्थान के निर्माण में भी एक अहम भूमिका निभायी। वह कैसे? यहोवा ने बसलेल को मुख्य कारीगर और निर्माता चुना, और उससे वादा किया कि वह ‘उसे अपनी आत्मा से, जो बुद्धि, प्रवीणता, ज्ञान और सब प्रकार के कार्यों की समझ देनेवाली आत्मा है, परिपूर्ण करेगा।’ (निर्ग. 31:3-5) इस शानदार काम को पूरा करने में दूसरे “बुद्धिमान” पुरुषों ने भी बसलेल और उसके सहायक ओहोलीआब का हाथ बँटाया। यही नहीं, यहोवा की आत्मा ने उन लोगों को दिल खोलकर दान देने के लिए भी उभारा, जो अपनी मरज़ी से देना चाहते थे। (निर्ग. 31:6; 35:5, 30-34) यही आत्मा, आज परमेश्वर के सेवकों को भी उभारती है कि वे राज्य के कामों को आगे बढ़ाने के लिए अपना भरसक करें। (मत्ती 6:33) हममें शायद कुछ काबिलीयतें या हुनर हो सकते हैं। लेकिन अगर हम उस काम को पूरा करना चाहते हैं, जो यहोवा ने आज अपने लोगों को सौंपा है, तो हमें उसकी पवित्र आत्मा के लिए प्रार्थना करनी होगी और उसकी दिखायी राह पर चलना होगा।—लूका 11:13.
सेनाओं के यहोवा के लिए हमेशा गहरी श्रद्धा रखिए
18, 19. (क) परमेश्वर की पवित्र आत्मा हमारे अंदर किस तरह की भावना पैदा करती है? (ख) शमौन और हन्नाह की मिसाल से आपने क्या सीखा है?
18 पवित्र आत्मा हमारे अंदर गहरी श्रद्धा की भावना पैदा करती है और इससे हम यहोवा को हमेशा अपने सामने रख पाते हैं। प्राचीन समय के परमेश्वर के लोगों से कहा गया था: ‘तू सेनाओं के यहोवा को पवित्र मानकर उसे श्रद्धा दिखाना।’ (यशा. 8:13, बाइंगटन) पहली सदी के यरूशलेम में ऐसे ही दो बुज़ुर्ग जन थे, जिनके दिल में यहोवा के लिए गहरी श्रद्धा थी। वे थे, शमौन और हन्नाह। (लूका 2:25-38 पढ़िए।) शमौन ने मसीहा के बारे में की गयी भविष्यवाणियों पर विश्वास ज़ाहिर किया था और वह “इस्राएल की शान्ति की बाट जोह रहा था।” परमेश्वर ने उस पर अपनी पवित्र आत्मा उँडेलकर उसे यकीन दिलाया कि जब तक वह मसीहा को नहीं देखेगा, उसे मौत नहीं आएगी। और वही हुआ। सामान्य युग पूर्व 2 में, एक दिन नन्हे यीशु की माँ, मरियम और उसका दत्तक पिता, यूसुफ उसे मंदिर में लेकर आए। पवित्र आत्मा से उभारे जाने पर शमौन उनके पास गया और मसीहा के बारे में भविष्यवाणी करने लगा। उसने यह भी भविष्यवाणी की कि जब यीशु को यातना स्तंभ पर लटकाया जाएगा, तो यह देखकर उसकी माँ मरियम का दिल कैसे छलनी हो जाएगा। लेकिन ज़रा सोचिए, जब शमौन ने “प्रभु [यहोवा] के मसीह” को अपनी गोद में लिया, तो उसका दिल कितना बाग-बाग हो गया होगा! सचमुच, परमेश्वर के लिए गहरी श्रद्धा रखने में शमौन आज के मसीहियों के लिए क्या ही बेहतरीन मिसाल है!
19 अब आइए परमेश्वर के लिए गहरी श्रद्धा रखनेवाली विधवा, हन्नाह की मिसाल पर गौर करें। हालाँकि वह 84 साल की थी, मगर वह “मंदिर से कभी गैर-हाज़िर नहीं होती थी।” (NW) वह “उपवास और प्रार्थना कर करके” रात-दिन यहोवा की पवित्र सेवा में लगी रहती थी। जब नन्हे यीशु को मंदिर में लाया गया, तब वह भी वहाँ मौजूद थी। भविष्य के मसीहा को देखकर वह फूली न समायी! इसलिए वह “प्रभु का धन्यवाद करने लगी, और उन सभों से, जो यरूशलेम के छुटकारे की बाट जोहते थे, उसके विषय में बातें करने लगी।” जी हाँ, हन्नाह से रहा नहीं गया और वह फौरन दूसरों को यह खुशखबरी सुनाने लगी! शमौन और हन्नाह की तरह, आज बहुत-से बुज़ुर्ग मसीहियों को भी इस बात की खुशी है कि भले ही उनकी उम्र ढल गयी है, फिर भी वे यहोवा के साक्षियों के नाते उसकी सेवा कर सकते हैं।
20. हम चाहे किसी भी उम्र के क्यों न हों, हमें क्या करना चाहिए, और क्यों?
20 हम चाहे किसी भी उम्र के क्यों न हों, हमें हमेशा यहोवा को अपने सामने रखना चाहिए। तभी वह हमारी उस मेहनत पर आशीष देगा, जो हम नम्रता के साथ दूसरों को उसके राज्य और आश्चर्यकर्मों के बारे में बताते वक्त करते हैं। (भज. 71:17, 18; 145:10-13) लेकिन अगर हम यहोवा का आदर करना चाहते हैं, तो हमें उसे भानेवाले गुण ज़ाहिर करने की ज़रूरत है। बाइबल के और भी दूसरे ब्यौरों की जाँच करने से हम इन गुणों के बारे क्या सीख सकते हैं?
आप क्या जवाब देंगे?
• हम कैसे जानते हैं कि यहोवा हमारी प्रार्थनाओं को सुनता है?
• हमें क्यों पूरी रीति से परमेश्वर की आज्ञा माननी चाहिए?
• जब हम निराश होते हैं, तब भी हमें यहोवा पर हमेशा भरोसा क्यों रखना चाहिए?
• परमेश्वर की पवित्र आत्मा उसके लोगों की मदद कैसे करती है?
[अध्ययन के लिए सवाल]
[पेज 4 पर तसवीर]
यहोवा से की गयी नहेमायाह की प्रार्थना काफी असरदार थी
[पेज 5 पर तसवीर]
नाओमी को जो आशीषें मिलीं, उन्हें याद करने से हमें यहोवा पर पूरा भरोसा रखने में मदद मिलेगी