फाँग-लिंग यॉन्ग से बातचीत
एक माइक्रोबायोलॉजिस्ट अपने विश्वास के बारे में बताती है
फाँग-लिंग यॉन्ग ताईवान के टाइपे की सैंट्रल रिसर्च एकाडमी में एक खोजकर्ता है। उनकी खोज का ज़िक्र वैज्ञानिक पत्रिकाओं में भी आया है। वह विकासवाद पर विश्वास करती थीं, लेकिन बाद में उन्होंने अपनी सोच बदल ली। सजग होइए! ने बातचीत के दौरान विज्ञान और उनके विश्वास के बारे में कुछ सवाल पूछे।
हमें अपने बारे में कुछ बताइए।
मेरे माता-पिता बहुत गरीब थे और माँ को पढ़ना-लिखना नहीं आता था। हमारा घर टाइपे शहर के पास एक ऐसे इलाके में था, जहाँ अकसर बाढ़ आती थी। वहाँ हम सुअर पालते और सब्ज़ियाँ उगाते थे। मेरे माता-पिता ने मुझे कड़ी मेहनत और दूसरों की मदद करना सिखाया।
क्या आपका परिवार धार्मिक था?
हमारा परिवार ताओ धर्म को मानता था। हम ‘परमेश्वर’ को बलिदान तो चढ़ाते थे, मगर हमारे पास उसकी सही पहचान नहीं थी। मैं यह सोचकर हैरान रह जाती थी कि ‘आखिर लोगों पर इतनी दुख-तकलीफें क्यों आती हैं और क्यों लोग इतने स्वार्थी बन गए हैं?’ मैंने ताओ धर्म, बौद्ध धर्म, पूर्व और पश्चिमी इतिहास से जुड़ी किताबें पढ़ी थीं। मैं चर्चों में भी जाती थी लेकिन मुझे अपने सवालों के जवाब नहीं मिले।
आपने विज्ञान का अध्ययन क्यों किया?
मुझे गणित पसंद थी और यह जानने की जिज्ञासा थी कि किस तरह भौतिक और रसायनिक नियम मिलकर चीज़ों को आकार देते हैं। विश्वमंडल हो या सूक्ष्म जीव हर चीज़ का एक आकार है और सब नियमों के मुताबिक काम करते हैं। मैं उन नियमों को समझना चाहती थी।
आप विकासवाद को क्यों सही मानती थीं?
हाई स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी तक मैंने सिर्फ विकासवाद के बारे में सीखा। और जब मैं खोजकर्ता बनी तब जीव-विज्ञान की वजह से मुझे विकासवाद को मानना ही पड़ा।
जब मैं खोजकर्ता बनी तब जीव-विज्ञान की वजह से मुझे विकासवाद को मानना ही पड़ा
आपने किस वजह से बाइबल पढ़ना शुरू किया?
सन् 1996 में, मैं ऊँची पढ़ाई करने के लिए जर्मनी गयी। अगले ही साल मेरी मुलाकात सीमोन नाम की एक यहोवा की साक्षी से हुई। उसने मुझसे कहा कि वह बाइबल से मेरे सवालों के जवाब देना चाहती है। जब उसने बताया कि बाइबल जीवन के मकसद के बारे में समझाती है, तो यह सुनकर मेरी दिलचस्पी और बढ़ गयी। मैं हर दिन सुबह 4:30 बजे उठकर एक घंटा बाइबल पढ़ती और उस पर मनन करने के लिए टहलने निकल जाती। अगले एक साल में मैंने पूरी बाइबल पढ़ ली। किस तरह बाइबल की भविष्यवाणियाँ शब्द-ब-शब्द पूरी हुईं यह जानकर मैं कायल हो गयी। धीरे-धीरे मुझे विश्वास होने लगा कि बाइबल परमेश्वर की तरफ से है।
जीवन की शुरूआत के बारे में आपका क्या मानना था?
सन् 1990 के दशक के आखिरी सालों के दौरान, मैं जीवन की शुरूआत के बारे में गहराई से सोचने लगी थी। उसी दौरान अणु जीव-वैज्ञानिकों को भी लगने लगा था कि जीवन की रचना बहुत जटिल और गहरी है, जिसका अंदाज़ा किसी को भी नहीं था। वे पहले से जानते थे कि जीवित कोशिका में मौजूद प्रोटीन, रसायनिक तौर पर सबसे पेचीदा अणु है। लेकिन अब वे खोज कर रहे थे कि कैसे प्रोटीन का झुंड साथ मिलकर, एक मशीन की तरह काम करता है और इसके पुरजे इधर-उधर घुमाए जा सकते हैं। अणुओं की बनी इस मशीन में 50 से भी ज़्यादा प्रोटीन मौजूद होते हैं। देखा जाए तो साधारण दिखनेवाली कोशिका को भी अलग-अलग मशीनों की ज़रूरत पड़ती है जैसे, उर्जा पैदा करने के लिए, जानकारी की कॉपी बनाने के लिए और झिल्ली पर नियंत्रण करने के लिए।
आप किस नतीजे पर पहुँचीं?
मैंने खुद से पूछा: ‘आखिर ये प्रोटीन मशीनें कैसे इतने बेहतरीन तरीके से काम करती हैं?’ उसी दौरान कोशिकाओं की जटिलता को देखकर वैज्ञानिकों के मन में भी यही सवाल उठा। अमरीका के एक जीव-रसायनिक प्रोफेसर ने अपनी किताब में तर्क दिया कि जीवित कोशिकाओं में मौजूद अणु मशीनें इतनी जटिल हैं कि इनकी रचना अपने आप नहीं हो सकती। मैं इस बात से सहमत थी और मुझे लगने लगा कि ज़रूर जीवन की सृष्टि हुई है।
मैंने खुद से पूछा: ‘आखिर ये प्रोटीन मशीनें कैसे इतने बेहतरीन तरीके से काम करती हैं?’
आपने यहोवा की साक्षी बनने का फैसला क्यों किया?
इस बात का मुझ पर गहरा असर हुआ कि खराब सेहत के बावजूद सीमोन हर हफ्ते 35 मील (56 किलोमीटर) का सफर तय करके मुझे बाइबल सिखाने आती थी। इतना ही नहीं जर्मनी के नात्ज़ी दौर के बारे में पढ़कर मुझे बहुत हिम्मत मिली। मैंने जाना कि किस तरह राजनैतिक मामलों में हिस्सा न लेने की वजह से उन्हें यातना शिविरों में डाला गया। साक्षियों के दिल में परमेश्वर के लिए इसी प्यार ने, मुझे उनकी तरह बनने के लिए उकसाया।
परमेश्वर पर विश्वास करने से आपको क्या फायदा हुआ?
मेरे साथ काम करनेवाले कहते हैं कि मैं आजकल ज़्यादा खुश रहती हूँ। मुझे अपने अतीत के बारे में सोचकर शर्म महसूस होती थी इसलिए मैंने कभी किसी को नहीं बताया कि मेरी परवरिश कैसे हुई और न ही मैंने कभी अपने माता-पिता का ज़िक्र किया। लेकिन बाइबल से मैंने सीखा कि परमेश्वर को हमारे अमीर-गरीब होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। देखा जाए तो यीशु भी शायद मेरे ही जैसे गरीब परिवार में पला-बढ़ा था। आज मैं अपने माता-पिता का खयाल रखती हूँ और अपने दोस्तों से उन्हें मिलाने में मुझे खुशी होती है। ▪ (g14-E 01)